सीहोर / इछावर। हाथरस उत्तर प्रदेश में देश की बेटी मनीषा के साथ हुए बलात्कार एवं निर्मम हत्या के आरोपियों को फांसी देने के संबंध में बुधवार को राष्ट्रीय बौद्ध महासभा समस्त वाल्मीकि एवं बहुजन समाज संगठन द्वारा बड़ी संख्या में तहसील कार्यालय पहुंचकर राष्ट्रपति के नाम तहसीलदार जिया फातिमा को ज्ञापन सौंपा। ज्ञापन देते वक्त प्रदेश संयोजक कमलेश दोहरे ने बताया कि देश में बहुजनओं पर लगातार बढ़ रही बलात्कार एवं हत्या की घटनाओं के कारण आज पूरे देश का बहुजन समाज भय की जिंदगी जी रहा है। आए दिन बहुजन समाज की बहन बेटियों के साथ बलात्कार घटनाएं हत्याएं की जा रही है, देश में कानून व्यवस्था अस्त-व्यस्त होने से ऐसा प्रतीत हो रहा है, गुंडाराज चल रहा हो। बही आरोपियों के हौसले बुलंद हैं। एक विशेष वर्ग के लोग पूरे देश में आतंक फैलाए हुए हैं। जब दिल चाहे वह बहन बेटियों का बलात्कार हत्या जैसी वारदातों को अंजाम देते हैं। इसी निरंकुशता के कारण बहुजन समाज की बेटी मनीषा के साथ कुछ दिन पूर्व चार दरिंदों ने सामूहिक बलात्कार कर जीभ काट दी रीड की हड्डी तोड़ दी इतना ही नहीं रहा तो दुपट्टे से बांधकर घसीटा गया जिससे उसकी दर्दनाक मौत हो गई। आलम यह है कि आज शासन प्रशासन भी मोन अवस्था में है। राष्ट्रपति महोदय जी से अपील करते हैं मनीषा के केस की सुनवाई 15 दिन के अंदर जल्द से जल्द की जाए और दोषी आरोपियों को फांसी दी जाएं। जिससे आगे होने वाली तमाम घटनाओं पर लगाम लग सके। अगर ऐसा नहीं हुआ तो सामाजिक लोग उग्र आंदोलन करेंगे जिससे जान-माल की हानि हुई तो शासन प्रशासन की जिम्मेदारी रहेगी। देश में कानून व्यवस्था बनाए रखने के लिए बहन मनीषा को न्याय जल्द से जल्द मिले और आरोपियों को फांसी की सजा दी जाए। देश में जो घटना घटित हो रही है, उन पर लगाम लग सके। उत्तर प्रदेश पुलिस पर आरोप लगाते हुए कमल कीर ने कहा की प्रदेश की न्याय व्यवस्था और पुलिस प्रशासन दोनों ही भ्रष्ट है। जिससे वहां आए दिन बलात्कार जैसे घटनाएं हो रही हैं। बहू बेटियों का जीना भी दुश्वार हो गया है,उत्तर प्रदेश में एक प्रकार से गुंडाराज ही चल रहा है। महामहिम से अपील है कि न्याय दिलाने हेतु ज्ञापन पर सख्त से सख्त कार्यवाही कर देश की बेटियों की इज्जत आबरू बचाने एवं मनीषा को न्याय दिलाने का कष्ट करें। ज्ञापन सौंपने वालों में प्रमुख रूप से अजाक्स कार्यकारिणी जिला अध्यक्ष डी.वी बडोदिया, जितेंद्र पवार, राजेश मालवीय, आज़ाद, कपिल मालवीय, जितेंद्र बामणिया, रवि मालवीय, चेन सिंह, राजकुमार पंवार, राष्ट्रीय महासभा जिला महासचिव सुरेश मालवीय, पूजा मालवीय, नीलू दोहरे, धर्मेंद्र तमोलिया, मनीषा मालवीय, अनिता ठाकुर, रोशनी, अभिषेक मालवीय, रोहित सहित बड़ी संख्या में सामाजिक लोग मौजूद थे।
Wednesday, 30 September 2020
Monday, 28 September 2020
राष्ट्रीय पोषण माह के अंतर्गत कार्यक्रम आयोजित।
राजगढ़, खिलचीपुर। राष्ट्रीय पोषण माह 2020 के अंतर्गत परियोजना सेक्टर खिलचीपुर शहरी के वार्ड क्रमांक 10 में राष्ट्र स्तरीय पोस्टिक थाली व्यंजन प्रतियोगिता का आयोजन किया। जिसमें वार्ड से बालिकाओं तथा महिलाओं के द्वारा उत्सव पूर्वक भाग लिया उनके द्वारा विभिन्न प्रकार के पौष्टिक व्यंजन बनाकर प्रतियोगिता में शामिल किए गए, साथ ही परियोजना अधिकारी खिलचीपुर कुलदीप शर्मा द्वारा पोषण माह से जुड़ी हुई विभिन्न गतिविधियों को बताते हुए कहा की आहार का हमारे जीवन में क्या महत्व है, तथा इसे किस तरह से देना चाहिए ताकि हमारे स्वास्थ्य को बेहतर रख सके। साथ ही संदेश देते हुए अनाज व फल सब्जियों से श्रीमती रीना नेहा रेखा द्वारा रंगोली बनाई गई सेक्टर सुपरवाइजर श्रीमती सरोज द्वारा उपस्थित प्रतिभागियों को पोषण तथा हमारा स्वास्थ्य किस तरह से एक दूसरे के पूरक है की जानकारी विस्तृत पूर्वक दी गई। विभिन्न खाद्य पदार्थों में कौन-कौन से विटामिन होते हैं जो हमारे स्वास्थ्य को बेहतर रखते हैं, आहार लेने की बारे में समझाया गया। कार्यक्रम के अंत में सभी प्रतिभागियों का सेक्टर पर्यवेक्षक द्वारा आभार व्यक्त किया गया। इस अवसर पर कार्यक्रम में आंगनवाड़ी कार्यकर्ता ज्योति, राधा, ममता, चंद्रलेखा, प्रमिला पारीक, भागवती तथा किशोरी बालिकाएं उपस्थित रही।
Friday, 25 September 2020
निजीकरण के विरोध में कार्यकर्ताओं ने सौंपा ज्ञापन।
सीहोर बड़ी संख्या में राष्ट्रीय बौद्ध महासभा के कार्यकर्ताओं ने कलेक्ट्रेट पहुंचकर जिला संयोजक आकाश भैरवे के नेतृत्व में डिप्टी कलेक्टर प्रगति वर्मा को राष्ट्रपति के नाम ज्ञापन सौंपकर कहा कि निजीकरण से देश के लिए भारी संकट उत्पन्न होने की संभावना है। निजीकरण से भारत के प्रत्येक नागरिक की आर्थिक स्थिति पूंजीपतियों के नियंत्रण में पहुंच जाएगी। नौजवान बेरोजगार युवाओं के भविष्य को ध्यान में रखते हुए निजीकरण को बंद किया जाए। प्रदेश संयोजक कमलेश दोहरे ने कहा कि 24 सितंबर 1932 को पुणे की यरवदा जेल में बाबासाहेब डॉ. अंबेडकर और महात्मा गांधी के बीच हुई 10 वर्ष में अनारक्षित वर्गों की सामाजिक आर्थिक शैक्षणिक व राजनीतिक स्तर पर समानता स्वतंत्रता व सामाजिक न्याय में व्याप्त गैर बराबरी भेदभाव को समाप्त किए जाने के समझौते को शून्य घोषित कर अनारक्षित वर्गों के लिए कम्युनल अवार्ड के अनुसार पृथक निर्वाचन 2 वोट का अधिकार अलग बस हाट को लागू किया जाना चाहिए। राजनीतिक आरक्षण को समाप्त किया जाए जिससे आरक्षित वर्ग स्वतंत्रत होकर अपने प्रतिनिधित्व राष्ट्रीय आरक्षित वर्गों के हितों की रक्षा सुरक्षा हो सके। केंद्र प्रांतों के शासकीय विभागों में ओबीसी एस सी , एस टी, अल्पसंख्यक व सामान्य वर्ग के आरक्षण के अनुसार विशेष अभियान चलाकर शीघ्र भर्ती प्रक्रिया शुरू करे। लोकतंत्र की रक्षा के लिए मतपत्र से मतदान की प्रक्रिया शुरू कराएं। ज्ञापन देने वालों में नवीन भेरबे, भवन सूर्यवंशी, के पी वर्मा, नारायण सिंह, लाल सिंह कटारिया, अरविंद मालवीय, देवेंद्र भारतीय, श्याम लाल मालवीय, रोहित अंसारी, सचिन सूर्यवंशी, शैलेंद्र तिवारी, राहुल कामले, पवन सूर्यवंशी, आदि उपस्थित थे।
3 वर्ष में कोई भी घर कच्चा नहीं रहेगा
मुख्यमंत्री श्री शिवराज सिंह चौहान ने कहा है कि आगामी 3 वर्षों में प्रदेश का कोई भी घर कच्चा नहीं रहेगा, सरकार द्वारा आवास योजनाओं के अंतर्गत पक्के घर बनाने के लिए सहायता दी जा रही है। अब प्रदेश में गरीब, मजदूर, किसानों को किसी बात की चिंता नहीं करनी पड़ेगी, उनकी चिंता सरकार कर रही है। प्रदेश में संबल योजना को पुन: प्रारंभ किया गया है, यह गरीबों का सुरक्षा चक्र है। इसके माध्यम से विभिन्न प्रकार की सहायता गरीबों को उपलब्ध कराई जा रही है।
मुख्यमंत्री श्री चौहान आज अशोकनगर जिले के राजपुर में विकास कार्यों के शिलान्यास/लोकार्पण अवसर पर जनता को संबोधित कर रहे थे। उन्होंने कार्यक्रम में कुल 244.92 करोड़ रूपये के विकास कार्यों का लोकार्पण/शिलान्यास किया।
अशोकनगर होगा स्मार्ट सिटी
मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कार्यक्रम में घोषणा की कि अशोकनगर को स्मार्ट सिटी बनाएंगे। यहां योजना के प्रावधानों के अनुरूप सारी सुविधाएं विकसित की जाएंगी। उन्होंने अशोकनगर में आगामी वर्ष में कृषि महाविद्यालय खोले जाने की भी घोषणा की।
जनता के कल्याण के लिए पैसे की कमी नहीं आने दी जाएगी
मुख्यमंत्री श्री चौहान ने कहा कि कोविड संकट के चलते प्रदेश की अर्थव्यवस्था बुरी तरह प्रभावित हुई है, परन्तु जनता के कल्याण एवं प्रदेश के विकास के लिए धन की कमी नहीं आने दी जाएगी। आवश्यकता होगी तो सरकार कर्ज लेकर कार्य कराएगी। प्रदेश को आत्मनिर्भर बनाया जाएगा।
योजनाओं का लाभ वितरित किया
कार्यक्रम में मुख्यमंत्री श्री चौहान द्वारा विभिन्न हितग्राहीमूलक योजनाओं के हितग्राहियों को योजनाओं का लाभ वितरित किया। 40 दिव्यांगजनों को ट्राईसाइकिल एवं 455 को 'हीयरिंग एड ' मशीन वितरित की गई।
कार्यक्रम में सांसद श्री ज्योतिरादित्य सिंधिया, श्री जजपाल सिंह जज्जी, श्री उमेश रघुवंशी, कलेक्टर श्री अभय वर्मा आदि उपस्थित थे।
लेख – पत्रकारिता की पांच आधार शिलाएं
पत्रकारों का महान दायित्व है. जो पत्रकार महीने–दर–महीने, हफ्ते–दर–हफ्ते, दिन–रातसाजो–सामान जुटाकर नेताओं को बिना किसी किस्म की जवाबदेही के अपनी कुर्सी पर बनाए रखने के लिए लेख पर लेख लिखते हैं, या फलां नेता या फलां सरकार के गुणगान करने में रात-दिन एक कर देते हैं, या, उनकी काली करतूतों के खिलाफ सबूतों को नजरंदाज करते हैं, ऐसे पत्रकार दरअसल भ्रष्टाचारी, जन-विरोधी और अनैतिक सरकारों के हिमायतियों की गिनती में आते हैं.
ऐसे पत्रकार टीवी माध्यम के प्राइमटाइम एंकर, अखबार के संपादक या बीट रिपोर्टर में से कोई भी हो सकते हैं. समूचे इतिहास में राजनेताओं और सत्ता में बैठे तमाम महानुभाव मीडिया और पत्रकारों को पालतू बनाने को जरूरी मानते आए हैं क्योंकि उनके पास वह ताकत है जिसकी शिनाख्त रूजवेल्ट ने अपने कथन में की थी. कुछ देशों में, अन्य देशों के मुकाबले राजनेता — मीडिया और पत्रकारों को वश में रखने में ज्यादा कामयाब रहे हैं. लेकिन सत्ता पर काबिज एक शक्तिशाली व्यक्ति किसी पत्रकार को किस हद तक वश में कर सकता है, यह बात बहुत हद तक उस पत्रकार विशेष पर भी निर्भर करती है.
अपने समकालीन समय की बात करने से पहले, चलिए कुछ समय रूजवेल्ट पर ही बिताते हैं. 1904 में पत्रकारिता के पेशे को इतने चमकीले शब्दों में बयान करने के बाद रूजवेल्ट ने उस वक्त क्या किया, जब किसी तेज तर्रार पत्रकार ने एक ऐसी कहानी बयान कर दी, जिसमें उन्हें भ्रष्टाचार का दोषी पाया गया था?
1909 में रूजवेल्ट को चुनौती देने वाला पत्रकार कोई और नहीं बल्कि सुप्रसिद्ध जोसेफ पुलित्जर था. ‘न्यू योर्क वर्ल्ड’ नामक अपने अखबार में उन्होंने ‘पनामा कनाल’ के निर्माण के दौरान करीब 4 करोड़ डालर की रकम के गायब हो जाने की खबर छापी. उन पत्रकारों के अनुसार, जिन्होंने उस खुलासे पर हफ्ते-दर-हफ्ते, दिन-रात मेहनत करते हुए सबूत जुटाकर रपट तैयार की थी, यह पैसा अमरीकी कंपनी जे.पी. मोर्गन और रूजवेल्ट के साले की जेबों में गया था. इस खुलासे के बाद रूजवेल्ट ने पुलित्जर पर मानहानि का मुकदमा दायर कर दिया और उन्हें सलाखों के पीछे धकेलने की धमकी दी. निचली अदालतों में तीन सालों तक चलते-चलते मामला अमरीकी सुप्रीम कोर्ट तक पहुंचा. अंत में, पुलित्जर की जीत हुई. यह उन पहले मामलों में से एक था, जब कोई पत्रकार देश के सबसे ताकतवर लोगों से भिड़ गया. उसके बाद के वर्षों में, पत्रकारों के हाथ कई सफलताएं लगीं, जैसे ‘वाटरगेट’ और ‘पेंटागन पेपर्स’ विवाद.
अब तक आप अपनी पत्रकारिता की कक्षाओं में इन मशहूर मामलों से परिचित हो चुके होंगे. जैसे-जैसे इस पेशे में आपका अनुभव बढ़ता जाएगा, आपको एहसास होगा कि पत्रकारिता का असल में एक सांस्कृतिक पहलू भी है. हर समाज में पत्रकारिता की ताकत में अंतर होता है. पुलित्जर, ‘वॉशिंगटन पोस्ट’, ‘न्यू योर्क टाइम्स’ ने संयुक्त राष्ट्र अमरीका में, जो दुनिया का सबसे पुराना और सबसे ताकतवर लोकतंत्र है, से टकराने की जुर्रत दिखाई. लेकिन कितने अखबारों ने दुनिया के सबसे बड़े लोकतंत्र में पत्रकारों और उनके काम का पक्ष लेते हुए, शक्तिशाली लोगों से टकराने की हिम्मत दिखाई है?
जवाब है: बिरले ही. हालांकि, पत्रकारिका की इस धूमिल छवि को बदला जा सकता है. और इसे बदलने का काम आप जैसे होनहार नौजवान पत्रकारों पर निर्भर करता है. बेशक, इस बदलाव के सिपहसलार बनने के लिए आप सभी को व्यक्तिगत स्तर पर मेहनत करनी होगी. मैं अपने इस व्याख्यान को मेहनत के उन्हीं क्षेत्रों पर केंद्रित करना चाहता हूं.
पत्रकारिता का हमारा पेशा हमसे असमान्य मेहनत की मांग करता है. इस पेशे में तमाम किस्म के मुद्दों पर गहरी समझ की दरकार होती है और साथ-साथ फौरन से पेशतर फैसले लेने की क्षमता. चूंकि पत्रकारों को समाज के ताकतवर तबकों के दबाव और रोष का भी लगभग सामना करना पड़ सकता है, इसलिए किसी खबर पर काम करने के सभी चरणों के दौरान आपमें ऐसी स्थितियों से निपटने का कौशल और रणनीति होना भी जरूरी है — कहानी के छपने से पहले और छपने के बाद भी. दुशवारियों से भरे इस पेशे में आपको स्व-रक्षा कवच भी विकसित करने होंगे. इन कवचों को जंग लगने से बचाने और कारगर बनाए रखने के लिए समय-समय पर उनकी साफ-सफाई और देखरेख भी जरूरी है.
निसंदेह, ताकतवरों को सच का आइना दिखाने से रोकने के लिए, लोग अपने आजमाए नुस्खों की मदद से आपको इस कवच से ही लैस नहीं होने देना चाहेंगे. एक संपादक किसी न्यूज स्टोरी के विचार को टेबल पर रखते ही उसका ‘कत्ल’ कर सकता है. एक अखबार का मालिक अपने न्यूजरूम में ‘वर्जित क्षेत्रों’ की सूची तय कर सकता है. यह सब बाहरी कारक हैं. लेकिन, पिछले कुछ समय से मैं बतौर संपादक होनहार पत्रकारों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए इन नकारात्मक ताकतों को पहले से ज्यादा चालाकी और धूर्तता से काम करते देख रहा हूं.
यह कैसे काम करता है? कोई भी पेशेवर ईमानदारी से यह दावा नहीं कर सकता कि उसे पत्रकारिता का पर्याप्त अनुभव हो गया है और कि उसे अब अपने जीवन में कुछ सीखने की दरकार नहीं. जबकि सीखने-सिखाने का सिलसिला ता-उम्र चलता रहता है. लेकिन हमारे देश में न्यूजरूम पर काबिज राजनीतिक और बौद्धिक रूप से रसूखदार लोगों या हमारे वरिष्ठ साथियों द्वारा नौजवान पत्रकार के विकास पर रोड़े अकटकाने और निष्क्रिय बनाने की कवायद अविराम चलती रहती है. इस काम को कदाचित बेहद मामूली उपलब्धियों पर तारीफ़ों के पुल बांधकर अंजाम दिया जाता है — जैसे, जब-तब उम्दा संपादक, उम्दा रिपोर्टर और उम्दा पत्रकार के तमग़े चस्पाँ करके.
किसी ध्यान आकर्षित करने वाला शीर्षक देने पर तारीफ़ें पाने के नशे में मैंने कई उप-संपादकों को आत्मतुष्ट होते और खरामा-खरामा जंग खाते देखा है. इस तरह की बेजा तारीफें किसी नौसिखिए पत्रकार के लिए, इस पेशे के अन्य पहलुओं को सीखने-समझने में अवरोध पैदा करती हैं. इस इकलौती प्रतिभा बल पर जब आप पर अन्य जिम्मेवरियां निभाने का समय आता है, तो आप उनके साथ न्याय नहीं कर पाते. कई बार तो खोजी पत्रकारिता के अत्यंत महत्वपूर्ण खुलासे ही इस नाकाबलियत के चलते ठंडे बक्से में डाल दिए जाते हैं, या, तथ्यों को इस कदर तोड़-मरोड़ पेश किया जाता है कि कहानी वैसे ही दम तोड़कर बे-असर हो जाती है. खोजी पत्रकारिता या उसकी अगुवाई करने में अनुभव की कमी होने के बावजूद भी,
अगर आप केवल भाषा पर अपनी महारत की बदौलत इतराते घूमेंगे तो आपको कभी अपनी कमी या ख़ामी समझ नहीं आएगी.आज से पचास साल बाद पीछे मुड़कर देखने पर वर्तमान दौर के लिखे को पढ़ना ऐसा होगा मानो धो-पोंछकर पेश किए गए भारत को जान-समझने का प्रयास कर रहे हों.
इसी तरह से किसी रिपोर्टर की कोई स्टोरी जब सोशल मीडिया में छा जाती है, या, पूरे देश का ध्यान अपनी तरफ आकर्षित करने में सफल रहती है तो वह रिपोर्टर अक्सर आत्म-संतुष्टि की चिर निद्रा में चली जाती/ जाता है. और अपने उसी इकलौते काम की रोटियां सेकने बैठ जाती/ जाता है, बनिस्पत एक के बाद असाधारण काम करना जारी रखने के.
जब न्यूजरूम्स में हर छोटी सी बात के लिए आपकी तारीफों के पुल बांधे जाने लगते हैं तो समझ लें यह आपको आत्म-संतुष्टि के जरिए सज़ा देने का तरीका है. जबकि वैसे तो प्रोत्साहित करना आत्म-सम्मान और आत्म-विश्वास पैदा करने के लिए अच्छी बात मानी जाती है.
लेकिन जब यही तारीफ सत्ता के दलालों की तरफ से आती है तो आपको उसे संदेह की नजर से देखना चाहिए. आपको समझना चाहिए कि वे भी आपके साथ संबंध बनाने की फिराक में रहते हैं. इसलिए उन्हें तरजीह ना दें क्योंकि ऐसा करने पर वे ही आपके लिए तय करने लगते हैं कि फलां स्टोरी कैसे लिखी जानी चाहिए या कि किस तरह की स्टोरी लिखने से बचा जाना चाहिए. धीरे-धीरे, उनकी अवांछित सलाहें आप पर हावी होने लगती हैं.
तो फिर इसका हल क्या है? बतौर एक होनहार नौजवान पत्रकार के रूप में आपको संतोष के भाव का शिकार होने से बचने के लिए किन-किन बातों पर ध्यान देना चाहिए, ताकि पत्रकारिता, जिसमें आपकी नैसर्गिक प्रतिभा है, उसे और अधिक तराशने-संवारने की दिशा में काम किया जा सके? आप अपनी आवाज कैसे विकसित कर सकते हैं, ताकि आपके काम को सार्थकता मिले? या कहें कि पेशे के वे कौन से पहलू हैं, जो आपके समग्र विकास में सहायक हो सकते हैं? किस तरह के कवच से आपको लैस होना चाहिए?
मेरा सुझाव है कि पत्रकारों को एक साथ पांच तत्वों पर काम करना चाहिए, ताकि वे विकार, अप्रासंगिकता और बेकार काम का शिकार ना बनें. यह पांच तत्व हैं: खबर को सूंघने की शक्ति, दुरुस्त मूल्यांकन, नैतिक साहस, विषय पर पकड़ और लिखने का कौशल. आपकी सफलता इस बात पर निर्भर करती है कि आप अपने पूरे कार्य जीवनकाल में खुद को इन पांच तत्वों में निपुणता पाने के लिए किस हद तक धकेल सकते हैं.
चलिए, इन तत्वों पर एक-एक करके बात करते हैं:
पहला तत्व है, खबर सूंघने की शक्ति.
यह खबर को पहचानने की समझ है. क्या यह समझ किसी व्यक्ति में जन्मजात होती है? क्या पत्रकारिता की यह ख़ूबी किसी में जन्मजात होती है, या, उसे पत्रकार के रूप में तराशा भी जा सकता है?
कुछ प्रवृतियां, हुनर और यहां तक कि मूल्य — जैसे साहस — किसी-किसी में जन्म से ही दिखाई देने शुरू हो जाते हैं. बचपन के अनुभव और आदतें भी किसी की खबर पहचानने की समझ को घटा या बढ़ा सकते हैं. लेकिन प्रशिक्षण से इस हुनर को उबारा, या, पहले से मौजूद स्थिति में, तराशा जा सकता है.जिनमे खबर सूंघने की क्षमता शुरू में बिलकुल नहीं पाई जाती वे भी अभ्यास और प्रशिक्षण से इसे अपने भीतर विकसित कर सकते हैं.
खबर सूंघने की प्रवृत्ति के संबंध में एक महत्वपूर्ण और पुराने सवाल पर ग़ौर करने की जरूरत है — पत्रकार कौन है?
क्या है? कोई बिजनेस प्रबंधक या प्रकाशक नहीं, ना मालिक. पत्रकार राज्यरूपी जहाज पर खड़ा एक पहरेदार है, जो समुद्र में दूर-दूर तक हर संभावित छोटे-बड़े खतरे पर नजर रखता है. वह लहरों में बह रहे उन डूबतों पर भी नजर रखता, जिन्हें बचाया जा सकता है. वह धुंध और तूफान के परे छिपे खतरों के बारे में भी आगाह करता है. उस अमय वह अपनी पगार या अपने मालिकों के मुनाफे के बारे में नहीं सोच रहा होता. वह वहां उन लोगों की सुरक्षा और भले के लिए होता है, जो उस पर भरोसा करते हैं.
खबर सूंघने की प्रवृत्ति, एक पत्रकार से हर छोटी से छोटी चीजों को दर्ज करवाती है. यह प्रवृत्ति समाज की भलाई और सुरक्षा-संबंधी किसी भी विषय से प्रज्ज्वलित हो सकती है. उसे इस बात से कोई सरोकार नहीं होना चाहिए कि इससे मालिक के हितों को नुकसान पहुंचता है या फायदा. एक सच्चा पत्रकार, व्यापक जनता की भलाई के सरोकारों से संचालित होता है.
एक पत्रकार होना कलाकार, चिंतक, लेखक या जन-हित में काम करने वाले वक़ील जैसा है. पत्रकार कोई कारोबारी, व्यापारी या राजनेता नहीं होता/ होती.
क्या खबरों को सूंघने की कला सिर्फ पत्रकारों में ही होती है? नहीं ऐसा नहीं है. यह कमोबेश लगभग सभी में पाई जाती है. एक मीडिया घराने के मालिक, जिसके लिए अपने निजी हित सर्वोपरि होते हैं, में अपने हिसाब से खबरों को सूंघने का शऊर पाया जाता है. तेल, टेलीकोम सीमेंट, खदान, साहूकार, रक्ष सौदों के दलाल, राजनेता, इत्यादि, भारत जैसे दुनिया के सबसे बड़े प्रजातंत्र में आज यही लोग मीडिया घरानों के मालिक बने बैठे हैं. यही वे लोग हैं जो अपने मुख्य धंधे की कमाई को मीडिया के धंधे में लगाते हैं, या कहें कि अपने मुख्य धंधे के मुनाफ़े में इज़ाफा करने के लिए मीडिया की ताकत को जरिया बनाते हैं.
ऐसी मंशा वाले इंसान से किसी भी प्रकार की सार्वजनिक भलाई की अपेक्षा नहीं की जा सकती. वह बस सार्वजनिक दायित्व निभाने का प्रपंच ही कर सकता है. असल में धंधा, वित्तीय हित और राजनीतिक भय और धंधे में इज़ाफा ही उसके प्रमुख सरोकार होते हैं. इसी कारण, जोसेफ पुलित्जर को प्रशिक्षित पेशेवर पत्रकारों से इतनी उम्मीदें थी. लेकिन कालांतर में वह अधिकांशत: गलत ही साबित हुआ.
1904 में, पुलित्जर ने लिखा कि सिद्धांतों पर टिके रहने की दृढ़ इच्छाशक्ति पेशेवर रूप से प्रशिक्षित पत्रकारों के पक्ष में जाती है, जिसका इस्तेमाल वह व्यापक जनहित में करेंगे. उन्होने आगे कहा:
यह बोध कि किसी भी सम्मानित पत्रकार को एक ऐसे अखबार का संपादक बनना कभी स्वीकार्य नहीं होगा, जो सार्वजनिक हितों की बनिस्पत निजी हितों को तरजीह देने वाला हो, इस तरह के उद्दयम को हतोत्साहित करने के लिए पर्याप्त है. जनता की नजर में अखबार की प्रतिष्ठा पर इस तरह का इनकार उतना ही घातक सिद्ध होता है, जितना अदालत में किसी नामी-गरामी वक़ील द्वारा केस के कागजातों को ख़ारिज करने पर.
लेकिन पुलित्जर एकदम गलत साबित हुए. हमारे देश में, हमारे इन तेलियों, टेलीकोम मालिकों, सीमेंट और खदान मालिकों, साहूकारों, रक्ष सौदों के दलालों, राजनेताओं ने सम्मानित पेशेवर पत्रकारों को निकाल-बाहर किया और उनकी पेशेवर आपत्तियों को पैरों तले रौंदा, लेकिन फिर भी उन्हें अपने अखबारों और चैनलों को चलाने के लिए उनके इशारों पर नाचने और उनके हितों की रक्षा करने वाले अपने मन-माफ़िक प्रशिक्षित पत्रकार मिल गए.
चूंकि अब हमें खासे अच्छे से मालूम चल गया है कि खबर सूंघने की क्षमता क्या होती है और इसे आज के दौर में कैसे बढ़ाया और कैसे इसकी तिज़ारत की जा सकती है, इसलिए हम अगले पहलू की तरफ बढ़ते हैं: दुरुस्त मूल्यांकन का शऊर. यह पहले और तीसरे के बीच की चीज है, यानी, खबर सूंघने या पहचानने की शक्ति और नैतिक साहस के बीच.
जब जोसेफ पुलित्जर ने कोलंबिया यूनिवर्सिटी को जर्नलिज्म स्कूल के रूप में एक बड़ा तोहफा दिया, उन्हें उस वक़्त बहुत सी चुनौतियों का सामना करना पड़ा और उन पर सवालिया निशान खड़े किए गए. पत्रकार बनने के लिए किसी को पत्रकारिता क्यों पढ़नी चाहिए? पुलित्जर का मानना था कि खबर सूंघने की कला में दक्ष होने के अलावा पत्रकारिता पढ़ने से तीन फायदे होते हैं: दुरुस्त मूल्यांकन की क्षमता, नैतिक साहस और प्रशिक्षण एवं अनुभव. कोलंबिया जर्नलिज्म स्कूल स्थापित करते हुए उन्होंने यही तर्क दिया था. स्कूल स्थापित होने के लगभग सौ साल बाद मुझे भी उसी स्कूल से अपनी तालीम हासिल करने का गौरव प्राप्त हुआ.
पत्रकार द्वारा किसी खबर का सही-सही अवलोकन यह तय करता है कि स्टोरी क्या है और उसे अनिवार्य तौर पर कैसा होना चाहिए. यह तय हो जाने पर पत्रकार उस स्टोरी को तैयार करने में अपना सब कुछ दाव पर लगा देता है. यह अवलोकन वह पत्रकार व्यक्तिगत स्तर पर करता/ करती है, और, अगर न्यूजरूम में उसकी स्टोरी तथ्यों की जांच, संपादन तथा कानूनी कसौटियों पर खरी उतरती है तो उस पत्रकार को इस दुनिया में कोई भी ताकत अपने दायित्व को निभाने और अपने काम को अंजाम तक पहुंचाने से नहीं रोक सकती.
अतः उसके इसी अवलोकन, खबर पहचानने के इसी हुनर को पोसने की जरूरत है.
यह हमें नैतिक साहस की ओर भी ले जाता है. चाहे संपादक हो या संवाददाता, बिना नैतिक साहस के उसके पास कुछ नहीं है. जैसा कि कुछ विचारकों का मानना है कि सामाजिक परिस्थितियां और भौगोलिक स्थितियां भी व्यक्तियों में नैतिक साहस का निर्धारण करने में अपनी भूमिका निभाती हैं. इसलिए पत्रकारिता संस्कृतियों के हिसाब अलग-अलग होती हैं. कुछ देशों में, हर सत्तासीन व्यक्ति से सवाल पूछना पत्रकारिता में सही माना जाता है.
कुछ अन्य देशों में, पत्रकारों को सत्तारूढ़ लोगों से सवाल पूछने की इजाजत नहीं है. कुछ और देशों में तो अभी तक चुनींदा निश्चित हितों को सवाल पूछने की छूट है, तो कुछ देशों में नहीं. यह अलग-अलग स्थितियां, उन देशों की राजनीतिक व्यवस्था का नतीजा हैं; और कि किसी जगह पर पत्रकार कितना नैतिक साहस दिखाते हैं.
हमें ऐसी दुनिया नहीं चाहिए जहां तख़्तनशीं से सवाल करने का अधिकार चंद संस्कृतियों तक सीमित रहे. यह कत्तई वांछनीय नहीं है कि किन्हीं देशों में तो आप सत्ता से सवाल कर सकते हैं, जबकि अन्यों में नहीं.
आइए देखते हैं पत्रकारिता के मानदंड स्थापित करने वाले इस व्यवसाय से जुड़े लोगों का क्या मानना था, विभिन्न समाजों के सांस्कृतिक भेदों के बावजूद. इस संबंध में पुलित्जर मानते थे:
ज्ञान, खबर, अक्लमंदी से कहीं ऊपर, किसी अखबार की नैतिकता, उसका साहस, अखंडता एवं मानवीयता, उत्पीड़ितों के प्रति उसकी संवेदनशीलता, स्वतंत्रता, जनहित को लेकर उसका समर्पण भाव और जन सेवा के प्रति उसकी चिन्ताओं में ही उसकी आत्मा का वास होता है.
ऊपर उद्धृत शब्द कितने प्रसांगिक जान पड़ते हैं.
आज के भारत में, शक्तिशाली पदों पर आसीन लोग पत्रकारिता को नैतिक साहस से विहीन कर देना चाहते हैं. मैं यहां किसी पार्टी-विशेष या विचारधारा की बात नहीं कर रहा हूं. ना ही समय-समय पर अपनी नाखुशी का इजहार करने वाले किसी पूंजीपति घराने या उनकी तरफदारी करने वाले ठेकेदारों की.को लेकर बेज़ा मशविरा देने की मंशा से कई बार फ़ोन किया. इन रपटों, जिनका ज़िक्र अभी ऊपर किया गया, का संबंध मीडिया, राजनीति और पूंजीपति घरानों से था. जाहिरा तौर पर, इनको लेकर इतना प्रतिरोध इसलिए भी था, क्योंकि इन्होंने जनता की नजर में खराब छवि वाले लोगों का पर्दाफाश किया था. उनको इस बात से कोई सरोकार नहीं था कि उनमें उठाए गए सवाल कितने प्रसांगिक थे, या, कि उनमें स्पष्ट तौर पर हितों के टकराव को उजागर किया गया था.
मेरी शिकायत देश के उन सबसे उदारवादी लोगों, जिनमे कई ‘पब्लिक इंटेलेक्चुअल’ भी शामिल हैं, से है जिन्होंने मुझे उन संवाददाताओं तक की स्टोरियों को लेकर, जिनको अंजाम तक लाने के लिए अदम्य नैतिक साहस की दरकार थी,
आज के भारत में, विवेक और नैतिक साहस-विहीन पत्रकारिता से ही ये यथास्थितिवादी लोग खुश हैं. लेकिन आपको घुटने नहीं टेकने चाहिए. वर्षों से, दुनिया भर में इस विषय पर विचार करने वाले लोगों ने स्वीकारा है कि पत्रकारिता में नैतिक साहस और विवेक जगाना सबसे मुश्किल कामों में एक है. लेकिन, यह कत्तई असंभव काम नहीं है. जिस तरह सैन्य अकादमी या पड़ोस के मार्शलआर्ट स्कूल में विद्यार्थियों को शारीरिक साहस सिखाया जाता है, उसी तरह पत्रकारों में भी नैतिक साहस का संचार किया जा सा सकता है.
नैतिक साहस का विकास, पत्रकारिता सिखाने वाले स्कूलों, न्यूजरूम, देश-विदेश के पत्रकारों के संघर्षों के अध्ययन से भी विकसित किया जा सकता है. बतौर पत्रकार भले ही आप कमज़ोर कद-काठी के हों, जिसे कोई भी ऐरा-गैरा धकियाया सकता हो; भले ही आपको व्यापक समाज में कोई भी ना जानता हो और रसूखदार लोगों द्वारा परेशान करने पर वे आपके समर्थन में आवाज ना उठाएं; भले ही आप ऐसे वर्ग, जाति, लिंग या इलाक़ों से आते हों, जिनको भेदभाव का शिकार होना पड़ता है; भले ही बड़े शहर में आपकी कोई गिनती ना हो…लेकिन अगर आप में नैतिक साहस है,
तो आपको सबसे ताकतवर इंसान से टकराने से दुनिया की कोई ताकत नहीं रोक सकती. फिर इस बात से कोई फर्क नहीं पड़ता कि वह देश का प्रधानमंत्री है या राष्ट्रपति, सर्वोच्च न्यायालय का मुख्य न्यायधीश है या देश-दुनिया का सबसे अमीर आदमी. अगर आपकी कहानी में सच्चाई है और आपमें नैतिक साहस, तो दुनिया आपकी है.पिछले कुछ समय से मैं बतौर संपादक होनहार पत्रकारों पर मनोवैज्ञानिक दबाव बनाने के लिए इन नकारात्मक ताकतों को पहले से ज्यादा चालाकी और धूर्तता से काम करते देख रहा हूं.
आखिरकार, आपके पास सूचना की ताकत है. सत्य आपके साथ है. यह सही है कि ताकतवर लोग और उनके गुर्गे फिर भी आपकी उपेक्षा कर सकते हैं और आपको मानसिक रूप से विक्षिप्त करार दे सकते हैं. आपकी कहानी का बेशक तुरंत कोई प्रभाव होता ना दिखाई पड़े; दुनिया के धंधे बेशक पहले की तरह चलना जारी रहें, लेकिन आपने अपना काम कर दिखाया. यही आपकी उपलब्धि है. पत्रकारिता का सामाजिक दायित्व तब पूरा हो जाता है जब आप अपने काम के जरिए नैतिक साहस दिखाते हैं. बाक़ी सब समाज और उसके विवेक पर निर्भर करता है.
यह हमें पत्रकारिता के चौथे जरूरी स्तंभ की तरफ ले जाता है. किसी विषय पर अपनी पकड़ को लगातार मजबूत करते रहने की जरूरत. पत्रकार परिभाषित रूप से ही हरफनमौला होते हैं और कुछ विषयों के उस्ताद. हम सभी को जहां तक संभव हो सके ज्यादा से ज्यादा विषयों में पारंगत होने की कोशिश करनी चाहिए. हमें अपने पूर्वग्रहों से भी उबरने का लगातार प्रयास करते रहना चाहिए. एक पत्रकार के लिए इतिहास, समाजशास्त्र, राजनीतिक शास्त्र, संस्कृति, अर्थशास्त्र और कानून के विषयों पर अपने ज्ञान में लगातार वृद्धि करते रहना जरूरी है.
उसे किसी विषय का अनुसरण, सख्त दायरे में रहकर नहीं करना चाहिए. चूंकि आज के दौर में हम ज्ञान को इसी तरह खांचों में बांटते के आदी हो चुके हैं, इसलिए मैं यहां दो विषय चुन रहा हूं: समाजशास्त्र और इतिहास.
समाजशास्त्र, समाज में रहने वाले मानव जीवन का विज्ञान, एक पत्रकार के लिए सबसे उपयोगी विषय है. पश्चिम में, जैसे-जैसे यह विषय विकसित हुआ, शुरू में इसके अध्ययन का क्षेत्र सामाजिक वर्ग थे. फिर आई नस्ल, और कि, कैसे यह किसी व्यक्ति की सामाजिक हैसियत का निर्धारण करती थी. भारत में, समाजशास्त्र सबसे अप्रचलित विषयों में से एक है. यहां तक कि अकादमिक दुनिया के लोगों में भी यह विषय अपना कोई ख़ास स्थान नहीं बना पाया है. हमारे देश में अधिकांश समाजशास्त्री, इतिहास और राजनीतिक विज्ञान में अपने काम के लिए जाने जाते हैं, जो ऐसे विषय हैं जिनसे ज्यादा सार्वजनिक पहचान मिलती है और आसानी से प्रकाशकों से अनुबंध संभव हो जाते हैं. चूंकि इतिहास, मुख्यत:, दस्तावेज़ों पर आश्रित होता है और इसके लिए आपको लाइब्रेरी या आरकाईव के चक्कर लगाने पड़ते हैं. जबकि इसके उलट समाजशास्त्र फ़ील्डवर्क एवं आंकड़े एकत्रीकरण पर ज्यादा ज़ोर देता है. इस विषय की इसी उपेक्षा के कारण हमारे देश में समाजशास्त्र के क्षेत्र में मौलिक काम की भारी कमी पाई जाती है.
क्या यह महज अभिरुचियों और दिलचस्पियों का मामला है, या, यह व्यक्तियों को सक्रिय रूप से इस देश की सबसे घिनौनी सच्चाई, अर्थात जाति, से आमना-सामना ना करने देने की कोई कुत्सित साज़िश है? समाजशास्त्र के किसी भी सच्चे प्रेमी के लिए भारतीय समाज की प्रमुख छलनी, जाति, के सवाल को कुरेदने के लिए गहरे उतरने के लिए हमेशा तत्पर रहना चाहिए था, लेकिन अपनी उच्च जाति और सामाजिक ओहदे के चलते अकादमिक संसार के अधिकांश सुधिजन इस विषय से मूंह फेर लेते हैं. उनके बाक़ी के थियोरी-संबंधी काम को अगर कुछ देर के लिए अलह्दा रखकर भी देखें, तो भी उन्होने जाति पर मौलिक दस्तावेज नाममात्र के लिए ही ही ढूंढे हैं. इसका अर्थ हुआ कि जाति पर बहुत कम जमीनी और अकादमिक काम हुआ है. इसके मुकाबले, अमरीकी समाजशास्त्रियों ने नस्ल पर गहन काम किया है. चूंकि पत्रकार अक्सर किसी विषय को गहराई से समझने के लिए अकादमिक कामों पर नजर डालना चाहते हैं, परंतु वे जाति के सावल पर आते ही जैसे किसी अंधे कुंए में पहुंच जाते हैं. आदर्श तौर पर, किसी और विषय की बनिस्पत पत्रकारों को समाजशास्त्र का विषय, ज्ञान प्राप्ति का सबसे महत्वपूर्ण जरिया मानना चाहिए, क्योंकि पत्रकारों के मतलब के सबसे जरूरी विषय मानव समाज-संबंधी ही होते हैं. अगर आप समाज के एक बड़े पहलू की उपेक्षा करते हैं तो उससे पत्रकारिता दरिद्र होती है.
अब यहां मैं जिस दूसरे विषय पर बात करना चाहता हूं वह है: इतिहास.
इतिहास के साथ पत्रकार का संबंध पेचीदा होता है. एक पत्रकार को ऐतिहासिक तथ्यों और ऐतिहासिक प्रक्रियाओं से वाबस्ता होना चाहिए. उसे अपने काम की सत्यता और तथ्यपरकता का मूल्यांकन करने के लिए इतिहास के औजारों पर पकड़ बनाना जरूरी है, ताकि भविष्य के इतिहासकारों के लिए उसका काम इस्तेमाल योग्य बन सके.
विक्टोरिया काल के इतिहासकार जॉन सीली ने कहा था, “इतिहास, अतीत की राजनीति है; और वर्तमान राजनीति भविष्य का इतिहास.” अगर उनकी बात सही है तो, पत्रकार अपने लेखन के जरिए आने वाली पीढ़ी के लिए इतिहास लिख रहे होते हैं; और वर्तमान की राजनीति दर्ज करना, रोजनामचे लिखने जैसा है. इससे जो मुख्य सवाल उठता है कि पत्रकार आज जो दर्ज कर रहे हैं वह कितना तथ्यात्मक है. क्या आज के पत्रकार अपने समय का हर संभव विस्तृत ख़ाका तैयार कर रहे हैं? या कि वे महज हमारी दैनिक राजनीति के सरकारी तंत्र के जन-संपर्क वक्तव्यों को ही दर्ज करने में लगे हैं? क्या ये कटे-कटाए, धोए-सुखाए विवरण, भविष्य में इतिहास के रूप में दर्ज होंगे?
आजकल एक घाघ संपादक किसी न्यूज स्टोरी को सीधे एक बार में नहीं मारता. वह पहले उसे टालता रहता है और छपने नहीं देता. इस तरह धीरे-धीरे रिपोर्टर के कम्यूटर के फोल्डर में अप्रकाशित खबरों का अंबार बढ़ने लगता है.
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पिछले छह-सात सालों में मोदी ने, देश की सभी संवैधानिक-गैर संवैधानिक संस्थाओं पर बुलडोजर फेर दिया है. वर्तमान समय को दर्ज करने में, पत्रकारों की भूमिका विशेषकर बेहद शोचनीय रही है. जब भी राजनीतिक आकाओं ने अपनी अप्रसन्नता जाहिर की, मीडिया घरानों के मालिक उनके सामने शाष्टांग प्रणाम की मुद्रा में आ गए. आत्मसम्मान-विहीन संपादकों ने सत्ता के आगे घुटने टेक दिए और संवाददाताओं द्वारा फाइल की गई महत्वपूर्ण खुलासों को कुचल डाला. आजकल एक घाघ संपादक किसी न्यूज स्टोरी को सीधे एक बार में नहीं मारता.
वह पहले उसे टालता रहता है और छपने नहीं देता. इस तरह धीरे-धीरे रिपोर्टर के कम्यूटर के फोल्डर में अप्रकाशित खबरों का अंबार बढ़ने लगता है. कई संवाददाता बिना अपना बेहतरीन काम प्रकाशित करवाए ही यूं ही चलते रहते हैं. उन्हें ऐतिहासिक चेतना के बगैर काम को करने के लिए प्रोत्साहित किया जाता है. जबकि अगर इस चेतना के साथ उनसे काम करवाया जाता तो उनके काम को टिकाऊ और प्रासांगिक बनाया जा सकता था.
यही वजह है कि आप गौ-गुंडागर्दी, शराबखानों पर हमलों, सिरफिरे नेताओं द्वारा बे-सिरपैर के बयानों पर तो बहुत से लेख देखते हैं, लेकिन इन लेखों से सत्ता में बैठे लोगों के बालों पर सुई तक नहीं रेंगती. कुर्सी हिलना तो दूर की कौड़ी है.
किन्हीं चुनींदा मामलों में, कभी कभार शक्तिशाली कंपनी को भी ज़ोर-शोर से निशाना बनाया जाता है. लेकिन ऐसा इसलिए संभव होता है क्योंकि कुछ बड़े रसूख वाले लोग मिलकर अपने निहित स्वार्थ के लिए किसी को सबक सिखाना चाह रहे होते हैं. लेकिन बात जब सबसे ऊंचे स्तर पर होने वाले अपराधों और संगठित लूट की आती है, तो पत्रकार प्रायः सच्चाई के करीब भी नहीं फटकना चाहते.
आज से पचास साल बाद पीछे मुड़कर देखने पर वर्तमान दौर के लिखे को पढ़ना ऐसा होगा मानो धो-पोंछकर पेश किए गए भारत को जान-समझने का प्रयास कर रहे हों. जब हम आज की जाने वाली पत्रकारिता पर नजर डालेंगे, तो हमें हमारे देश के इन सात प्रमुख स्तंभों के बारे में लगभग कुछ नहीं मिलेगा: प्रधानमंत्री कार्यालय, राष्ट्रीय सुरक्षा सलाहकार, वित्त मंत्रालय, और वर्तमान सत्तारूढ़ पार्टी अध्यक्ष. इसके बाद आते हैं:
रिलायंस और अदानी ग्रुप, दो बड़े पूंजीपति घराने, जो मोदी काल में खूब फले फूले; और अंत में: सालाना तीन लाख करोड़ बजट वाला, रक्षा मंत्रालय. इस मंत्रालय का बजट दुनिया भर में सबसे अधिक बजट है और इसकी दिलचस्पी उपमहाद्वीप में तनाव बनाए रखना है. परंतु, पत्रकारिता के स्थापित मूल्यों के विपरीत, इन अत्यंत महत्वपूर्ण क्षेत्रों पर लगभग चुप्पी छाई रहती है. बेशक, आप इनमे कई और विषय और क्षेत्र जोड़ सकते हैं, जिन पर लगभग किसी क़िस्म की विवेचनात्मक जांच नहीं मिलती. राज्य स्तरों पर इन बड़े राष्ट्रीय मुद्दों के अपने क्षेत्रीय मुद्दे हैं. लेकिन मेरा कहना है कि अगर पत्रकार की प्रमुख ज़िम्मेवारी समकालीन राजनीति, नीतियों और फैसलों पर लिखना है, तो पत्रकार अपने कर्तव्य का निर्वाह ठीक प्रकार से नहीं कर रहे हैं. उस अर्थ में बड़े-बड़े अखबारों और टीवी कंपनियों में काम करने वाले हजारों पत्रकारों से असल पत्रकारिता का काम नहीं लिया जा रहा. उनके द्वारा किए गए काम का कोई अभिलेखीय मूल्य नहीं है.
राजनीति, अर्थशास्त्र, विज्ञान, कानून जैसे ना जाने कितने विषय हैं और एक पत्रकार के लिए अपने क्षितिज को विस्तार देना जिंदगी भर चलने वाला उद्दयम है. अपने पेशेवर जीवन में आगे बढ़ते हुए वे इन तमाम विषयों पर बेहतरीन काम करके दिखा सकते हैं. निस्सन्देह इनमे हर विषय पर ढेरों टन पाठ्य सामग्री मौजूद है और इन्हें एक जीवन में पढ़ पाना असंभव. यह विनम्र करने वाला एहसास है कि जानने- सीखने को कितना कुछ मौजूद है.
यह हमें हमारे अंतिम बिंदु पर ले आता है: शिल्प, कौशल या कारीगरी.
पत्रकारिता से जुड़ी हर चीज कौशल, शिल्प या कारीगरी की श्रेणी में आती है. जिस भाषा का इस्तेमाल आप करते हैं. लेखन की विधा के साथ जुड़ा सौंदर्य, प्रस्तुति, विन्यास, किरदार और तस्वीरों का आकर्षण, सभी मल्टीमीडिया माध्यम में मायने रखते हैं.
अधिकांश पत्रकार शिल्प के विचार को केवल भाषा से जोड़कर देखते हैं. यह सही है कि आपकी भाषा और गद्य जरूरी अवयव हैं. जिस तरह आप अपने किरदारों में जान फूंकते हैं वह आपके लिखे को यादगार बनाता है. लेकिन इस हुनर को केवल भाषा तक सीमित रखना, पत्रकारिता के ‘क्राफ्ट’ को ‘मिसरीड’ करना है. ‘सब-दुखों-की-एक-दवा वाला’ नुस्खा नुकसानदायक साबित हो सकता है, खासकर तब, जब भिन्न प्रकार के लेखन की शैली अलग-अलग हो.
मिसाल के तौर पर खबर लिखते हुए आप पाठक के संयम की परीक्षा नहीं ले सकते. सर के बल खड़े पिरामिड का जांचा-परखा तरीका आज भी उतना ही कारगर माना जाता है. खबर लिखने को, मत-लेखन में तब्दील नहीं किया जा सकता. एक खोजी पत्रकार अपने लेखन में शायद अपने खुलासे का एक छोटा सा हिस्सा प्रयोग में लाए. जो हिस्सा प्रयोग में ना लाया जा सका हो, वह संभव है उसकी नोटबुक में दर्ज रहे.
‘मामले’ के तहखाने तक जाने के के रास्ते के रूप में. जिसे वह अभी दुनिया के सामने, इसलिए उजागर नहीं करना चाहता/ चाहती कि कहीं उसके लिए तहखाने के दरवाजे सदा के लिए बंद ना कर दिए जाएं. फीचर लिखते हुए एकत्रित जानकारी को विस्तार से बताने के लिए अपने देखे-सुने को मिर्च-मसालों के साथ पेश किया जा सकता है. लेकिन अगर खोजी पत्रकारिता की रपट लिखते वक़्त उस शैली को अपनाया जाता है तो बात बिगड़ सकती है, जिससे पत्रकार की कहानी का अपने मूल उद्देश्य से भटकने का खतरा बाढ़ जाता है.
इस तरह हम देखते हैं कि एक प्रकार की पत्रकारिता से दूसरे प्रकार की पत्रकारिता के शिल्प में बदलाव आता रहता है. ठीक उसी तरह जिस प्रकार सार्डीन मछली और शार्क मछली को पकड़ने की तकनीक और साजो-सामान एक दूसरे से अलग होते हैं. एक बढ़ई भी अलग-अलग फर्नीचर बनाने के लिए अलग-अलग औज़ारों और लकड़ी का इस्तेमाल करता है. अक्सर अलग-अलग किस्म के कामों के लिए विभिन्न किस्म के हुनर की आवश्यकता पड़ती है. लेकिन अभ्यास और अनुभव से, पत्रकारिता की कला के विभिन्न पहलुओं में महारत हासिल की जा सकती है.
Saturday, 5 September 2020
बेरोजगार युवा संगठन ने मुख्यमंत्री के नाम एसडीएम को सौंपा ज्ञापन।
इछावर.। शुक्रवार को बेरोजगार संगठन ने बड़ी संख्या में तहसील कार्यालय पहुंचकर मुख्यमंत्री के नाम एसडीएम बृजेश सक्सेना को विभिन्न मांगों को लेकर ज्ञापन दिया। ज्ञापन देते वक्त कहा कि पिछले 3 सालों से मध्यप्रदेश शासन द्वारा विभाग में आरक्षक उप निरीक्षक एवं वन रक्षक सहित किसी भी अन्य विभाग में भर्ती न करने पर प्रदेश का युवा वर्ग बड़ी संख्या में बेरोजगारी की कगार पर खड़ा हो गया। भर्ती की तैयारी कर रहे कई छात्र-छात्राओं की उम्र निकल जाने से भर्तियों से वंचित हो गए, ऐसे में जीवन यापन करना भी दुश्वार हो गया है, भर्ती परीक्षा में मध्यप्रदेश में एन.आर.ए पद्धति लागू ना की जाए, एवं मध्य प्रदेश पुलिस विभाग में आरक्षक के 15000 पदो एवं उप निरीक्षक 1400 पदों सहित अन्य विभागों में तत्कालीन भर्ती प्रक्रिया आरंभ की जाए। क्योंकि प्रदेश के विभागों में पिछले 3 सालों से पदों पर राज्य में भर्ती नहीं खुली जिसके चलते युवक युवती घर बैठे ही उम्र दराज होकर बेरोजगार हो गए। ऐसे में राज्य सरकार भर्ती प्रक्रिया में उम्र बढ़ाकर 37 साल की जावे। प्रदेश में जो बेरोजगार है, उन्हें तत्कालीन राज्य सरकार द्वारा बेरोजगार भत्ता आरंभ किया जावे। प्रदेश में भर्ती प्रक्रिया एमपी पी.ई.बी के माध्यम से ली जावे एवं आरटीआई के माध्यम से पारदर्शिता लाई जाए। माननीय महोदय बेरोजगारों के हित में तत्काल ही निर्णय लिया जाए आपके द्वारा घोषणा की गई है कि मध्य प्रदेश में सिर्फ प्रदेश के युवाओं को ही रोजगार दिया जाएगा। जिसका पालन किऐ जाने कि प्रदेश के युवा बेरोजगार आपसे तत्काल कार्यवाही की अपेक्षा करते हैं। साथ ही हमारा आग्रह है कि केंद्र सरकार द्वारा लागू की जा रही भर्ती प्रक्रिया के एन.आर. ए के विरोध में आप भी केंद्र सरकार को अवगत कराएं। ज्ञापन देने वालों में प्रमुख रूप से महेंद्र सिंह ठाकुर, हंसराज कंडारे, जगदीश परमार, कमलेश परमार, मोहित वर्मा, संतोष बारेला, रूपेश मालवीय, करण सिंह धुर्वे, सहित बड़ी संख्या में बेरोजगार युवा मौजूद हुए थे।
Thursday, 3 September 2020
विभिन्न बेरोजगार छात्र संगठनों द्वारा बड़ी संख्या में मुख्यमंत्री निवास पर उग्र आंदोलन।
बेरोजगार करे पुकार रोजगार दो मामा अबकी बार।
रोजगार नहीं तो वोट नहीं
भोपाल। मध्यप्रदेश में बेरोजगार की बाढ़ आने लगी है, पिछले कई सालों से मध्यप्रदेश शासन द्वारा किसी भी विभाग में भर्ती न करने पर बेरोजगार छात्र छात्राओं में आक्रोश पैदा हो गया। तो विभिन्न कोचिंग संस्थानों पर भर्ती की तैयारी कर रहे हैं कई छात्र-छात्राओं की उम्र निकल जाने से भर्ती से वंचित हो गए। ऐसा ही हाल मध्यप्रदेश शासन में देखने को मिल रहा है जहां एक ओर तो सरकार बड़े बड़े वादे कर रही है, तो वहीं रोजगार की बात करें तो पकोड़े तलने की सलाह दे रही है। पिछले 3 सालों में ना तो एमपीपीएससी, एमपी पुलिस, एसआई ,वनरक्षक आदि विभिन्न विभागों के पदों पर बड़े स्तर पर कोई भी भर्ती नहीं खुली। जिसके चलते युवक युवतियां घर बैठे ही उम्र दराज हो गए। ऐसे में कई गरीब छात्र छात्राएं कंपटीशन की तैयारी बड़े कोचिंग सेंटरों पर मोटी रकम देकर कर रहे हैं, जिसका खामियाजा उन्हें मध्य प्रदेश सरकार में भर्ती न खुलने पर अपनी जान देकर चुकाना पड़ रहा है। पिछले 3 सालों में रोजगार की अपेक्षा आत्महत्याओं का आंकड़ा बढ़ गया।जिसके चलते विभिन्न बेरोजगार छात्र संगठनों द्वारा बड़ी संख्या में 4 सितंबर को भोपाल मुख्यमंत्री निवास पर उग्र आंदोलन कर रोजगार की मांग करेंगे। जो भोपाल पहुंचने में असमर्थ हैं, वहां विभिन्न बेरोजगार छात्र संगठनों के साथ अपने स्तर पर मुख्यमंत्री के नाम अधिकारियों को ज्ञापन सौंपकर। आंदोलन का हिस्सा बनेंगे, वर्तमान सरकार रोजगार को लेकर चेतावनी भी देंगे। इस समय मध्य प्रदेश के समस्त जिलो मैं बेरोजगार संगठन द्वारा उग्र आंदोलन किया जाएगा। कहीं ना कहीं वर्तमान सरकार रोजगार के मामले में विफल रही है। मध्य प्रदेश के युवाओं को बेरोजगारी की कगार पर लाकर खड़ा कर दिया इसी को लेकर विभिन्न बेरोजगार छात्र संगठनों द्वारा बड़ी संख्या में उग्र आंदोलन किया जाएगा।